दिन के कुछ घंटे मैं यहीं बिताना चाहता हूँ

 दिन के कुछ घंटे मैं यहीं बिताना चाहता हूँ 

मैं अपने गांव में था। एक दिन खेत घूमने निकला घूमने निकला, धूप बहुत थी इसलिए खेत बीच में पेड़ों की छाँव में जो मचानी बानी थी उस पर  जाकर बैठ गया। वहाँ मुझे प्रकृति की जो अनुभव मिली, उसे मैंने कविता के रूप में पंक्तिबद्ध कर लिया। फिर कैमरा निकला और रिकॉर्ड कर लिया। आनंद लें, वीडियो के साथ :)

दिन के कुछ घंटे मैं यहीं बिताना चाहता हूँ,
उन मृदुल नवीन पत्तों की लालिमा को निहारना चाहता हूँ। 
पवन के झोंको से लहलहाते झूमते इन धनों को देखना चाहता हूँ। 
इस नैसर्गिक सुंदरता के बीच बने इस मचानी पर बैठकर,
इन खेतों की रखवाली तो नहीं ,पर इसके ऊपर
पीपल और शीशम के पत्तों से छनकर आने वाली धूप को खाना चाहता हूँ।  

हल्की हवा के साथ, इस मचानी पर बैठ कर 
अपनी भावनाओं को कविता का रूप देना चाहता हूँ। 
हां ! सामने सड़क पर कोलाहल तो जरूर है, पर मैं 
इन पेड़ों पर बेस चिड़ियों की चहचहाट सुनना चाहता हूँ। 

बिजली के तारों को उनके अंतिम छोर तक ताकना चाहता हूँ,
दिन के कुछ घंटे मैं यहीं बिताना चाहता हूँ। 

और हाँ! उस मोटर चला कर पानी में छपछपी भी लगाना चाहता हूँ,
पर शर्दी लगी है, इसलिए इस  ख्याल को अभी टालना चाहता हूँ। 
दिन के कुछ घंटे मैं यहीं बिताना चाहता हूँ। 

You will enjoy this poem if you recite it along with this video :)



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