मनुष्यता
कविता : मनुष्यता
कवि : मैथिलिशरण गुप्त
- मनुष्यता अर्थात मानवीय मूल्य , जिसे अपनाकर मनुष्य एक श्रेष्ठ श्रेणी को प्राप्त कर सकता है।
- मनुष्यता - जो मानव और पशु में भेद स्पष्ट करता है।
- मनुष्यता -जो एक तुच्छ मनुष्य को भी मानव से महामानव और फिर देवत्व की यात्रा करवा देता है।
मनुष्य सबसे अधिक भयभीत रहता है - अपनी मौत से।
मृत्यु कब होगी?---यह जनता नहीं है
और
जब होगी --तब रोक सकता नहीं है ,
फिर भी मृत्यु का भय उसे सताता रहता है।
- जब मनुष्य पाशविक वृत्तियों के सहारे जीवन जीता है ,तब उसमे और पशु में कोई अंतर नहीं रह जाता है। स्वयं के लिए जीवन जीना ही पशु-प्रवृति है।
- मनुष्य तब मनुष्य कहलाता है जब उसमे मनुष्यता अर्थात मानवीय मूल्य हो। इसके आभाव में मनुष्य निरा पशु समान होता है।
विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी,
मरो, परंतु यों मरो कि याद जो करें सभी।
हुई न यों सुमृत्यु तो वृथा मरे, वृथा जिए,
मारा नहीं वही कि जो जिया न आपके लिए।
वही पशु- प्रवृति है कि आप आप ही चरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
मरो, परंतु यों मरो कि याद जो करें सभी।
हुई न यों सुमृत्यु तो वृथा मरे, वृथा जिए,
मारा नहीं वही कि जो जिया न आपके लिए।
वही पशु- प्रवृति है कि आप आप ही चरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
जिस धरती पर हम रहते है उसे मर्त्य लोक कहा जाता है। यहाँ जो भी जन्म लेता है, उसका मरना निश्चित है। यही कारन है कि मनुष्य को अपनी मौत का भय सदा सताता रहता है। कवि कहते हैं कि यदि मनुष्य की सुमृत्यु नहीं होता है -तब उसका जीना और मरना ,दोनों बेकार हो जाता है।
- सुमृत्यु- कवि के अनुसार जब मनुष्य की मृत्यु के उपरांत भी यहाँ की फ़िजा में उसकी सुगंध महसूस की जाए , तब उसे सुमृत्यु कहते हैं। अर्थात मृत्यु के बाद भी लोग उसे याद रखें।
- पशु प्रवृति - स्वार्थ से प्रेरित होकर स्वयं के लाभ के लिए जीना ही पशु प्रवृति है।
उसी उदार की कथा सरस्वती बखानती,
उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।
उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती;
तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।
अखंड आत्म भाव जो असीम विश्व में भरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।
उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती;
तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।
अखंड आत्म भाव जो असीम विश्व में भरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
- उदार - जो व्यक्ति दूसरो के लिए जीता है ,परोपकार करता है ,यही उदार होता है।
- सरस्वती से आशय है - ज्ञान विज्ञान के साधन। (पुस्तक ,पत्र -पत्रिकाएँ ,आदि )
यह धरती भी उसी उदार व्यक्ति का आभार प्रकट करती है। वही उदार व्यक्ति लोगों के दिलो में जीवित रहता है। उसी उदार व्यक्ति की लोग पूजा भी करते हैं।
- अखंड आत्म भाव - सभी जीवों में परमात्मा का ही अंश आत्मा के रूप में विद्यमान है। अतः जो सम्पूर्ण विश्व को अपना परिवार समझता है , उसे ही उदार कहते हैं।
क्षुधार्त रंतिदेव ने दिया करस्थ थाल भी,
तथा दधीचि ने दिया परार्थ अस्थिजाल भी।
उशीनर क्षितीश ने स्वमांस दान भी किया,
सहर्ष वीर कर्ण ने शरीर-चर्म भी दिया।
अनित्य देह के लिए अनादि जीव क्या डरे?
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
राजा रंतिदेव प्रसंग तथा दधीचि ने दिया परार्थ अस्थिजाल भी।
उशीनर क्षितीश ने स्वमांस दान भी किया,
सहर्ष वीर कर्ण ने शरीर-चर्म भी दिया।
अनित्य देह के लिए अनादि जीव क्या डरे?
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
राजा रंतिदेव उदार और दयालु प्रवृति के थे। अपने प्रजापालन के लिए प्रसिद्ध थे। एक बार देवराज इंद्र ने उनकी परीक्षा लेने के लिए उनके राज्य में बदल जाने से रोक दिया। फलतः वर्षा नहीं हुई और अनाज का संकट आ गया। राजा रंतिदेव भी भूखे थे। उन्हें एक थाली भोजन मिली परन्तु उसी समय किसी ने उनसे भोजन की भिक्षा मांग ली। भूखे रंतिदेव ने हाथ में आये हुए भोजन के थाल को भी दान कर दिया।
महर्षि दधीचि प्रसंग
महर्षि दधीचि ने हजारों वर्षों तक तपस्या कर के अनेक शक्तियां अर्जित की थीं। जब एक दैत्य वृत्तासुर ने देवताओं पर आक्रमण कर दिया तब सभी देवता उसका सामना करने में असमर्थ रहे। देवता त्राहिमाम करते हुए महर्षि दधीचि के पास आत्मरक्षा की गुहार लेकर गए। महर्षि दाधीचि ने देवता और मानव संस्कृति की रक्षा करने के लिए अपनी अस्थियों का दान कर दिया। उनकी हड्डियों से बज्र बनाया गया और वृतासुर कर अंत हुआ।
उशीनर क्षितीश प्रसंग
उशीनर और क्षितीश नाम के दो राजा थे। दोनों के कार्य काल में लगभग 500 वर्ष का अंतर है ,लेकिन दोनों के साथ सामान घटनाएँ हुई।
राजा उदार थे , प्रजापालक थे ,अपने न्याय के लिए प्रसिद्ध थे। इनकी प्रसिद्धि से घबराकर देवराज इंद्र इनकी परीक्षा लेने गए। इंद्र ने एक कबूतर (पक्षी) का शिकार किया और वह कबूतर वहां जाकर गिरा जहाँ राजा अपना न्याय कर रहे थे। राजा ने कहा कि पक्षी उनकी शरण में आया है और शरणार्थी की रक्षा करना राजा का कर्त्तव्य है। तब इन्द्र ने राजा से पक्षी के वजन जितना मांस माँगा। राजा ने स्वयं का मांस इंद्रा को दे दिया , ताकि पक्षी की रक्षा हो सके।
वीर कर्ण प्रसंग
धनुर्धर अर्जुन इंद्र का पुत्र था। महाभारत युद्ध में अर्जुन का प्रतिद्वंदी कर्ण था। कर्ण दानी था। इन्द्र ने अपने पुत्र के सुरक्षार्थ , ब्राह्मण रूप धारण किया और कर्ण के पास भिक्षा मांगने पहुँच गए। उन्होंने कर्ण से उनका सुरक्षा कवच मांग लिया जो उनकी चमड़ी में स्तिथ था। दानवीर कर्ण ने प्रसन्नता पूर्वक उन्हें अपना सरीर का चर्म दे दिया।
अनित्य देह के लिए अनादि जीव क्या डरे.....
- अनित्य - जो नाशवान है - जो मरणशील है - जिसका अंत निश्चित है।
- नित्य - जो अमर है - जो सत्य है।
सहानुभूति चाहिए, महाविभूति है यही;
वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।
विरुद्धभाव बुद्ध का दया-प्रवाह में बहा,
विनीत लोकवर्ग क्या न सामने झुका रहा ?
अहा ! वही उदार है परोपकार जो करे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।
विरुद्धभाव बुद्ध का दया-प्रवाह में बहा,
विनीत लोकवर्ग क्या न सामने झुका रहा ?
अहा ! वही उदार है परोपकार जो करे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
- सहानुभूति - sympathy
- महाविभूति - सबसे बड़ी पूंजी
"सहानुभूति चाहिए, महाविभूति है यही;
वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।"
सहानुभूति को महाविभूति कहा गया है क्योंकि :-
जो मनुष्य संवेदनशील होता है, लोगों के साथ सहानुभूति रखता है। जो दूसरों के सुख-दुःख में साथ देता है, वह महान, उदार,और सर्वप्रिय बनते है।
यह संसार उसी उदार व्यक्ति के वश में होती है, वही वास्तविक शासक बनता है। अतः सहानुभूति ही मनुष्य के जीवन की महाविभूति है।
"विरुद्धभाव बुद्ध का दया-प्रवाह में बहा,
विनीत लोकवर्ग क्या न सामने झुका रहा ?"
भगवान बुद्ध का विरुद्धवाद क्या था ??
भगवन बुद्ध ने हिन्दू सनातन धर्म के वैदिक धारा के विपरित अवैदिक धारा का प्रवाह किया।
उदाहरण : सनातन धर्म में देवी-देवताओं को बकरे की बलि चढ़ाई जाती है। बुद्ध ने इसके विपरीत शांति का सन्देश दिया और इसे रोकने का प्रयत्न किया ।
प्रारंभ में बुद्ध का प्रचंड विरोध हुआ। ब्राह्मणों के भयंकर प्रतिरोध को उन्होंने झेला। अंततः लोग उनके करुणा के प्रवाह में बह चले और दुनिया उनके सामने नतमस्तक हुई।
रहो न भूल के कभी मदांघ तुच्छ वित्त में,
सनाथ जान आपको करो न गर्व चित्त में।
अनाथ कौन है यहाँ ? त्रिलोकनाथ साथ हैं,
दयालु दीन बन्धु के बड़े विशाल हाथ हैं।
अतीव भाग्यहीन है अधीर भाव जो करे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
सनाथ जान आपको करो न गर्व चित्त में।
अनाथ कौन है यहाँ ? त्रिलोकनाथ साथ हैं,
दयालु दीन बन्धु के बड़े विशाल हाथ हैं।
अतीव भाग्यहीन है अधीर भाव जो करे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
- वित्त -धन
- तुच्छ - छोटा / नश्वर
- मदांध - मद (गर्व) में अँधा
"सनाथ जान आपको करो न गर्व चित्त में।अनाथ कौन है यहाँ ? त्रिलोकनाथ साथ हैं,"
अगर कोई सनाथ है, अर्थात उसके ऊपर माता-पिता, भाई, चाचा आदि का हाथ है। अगर किसी के पास बाहुबल है, शक्तिशाली लोगों का साथ है, या फिर उसके पास प्रसिद्धि है। तब उस मनुष्य को अपने मन में अहंकार नहीं करना चाहिए क्योंकि इस धरती पर कोई भी अनाथ नहीं है। हम सभी के सर पर उस परमात्मा का हाथ है - जो तीनो लोको के स्वामी हैं।
"दयालु दीन बन्धु के बड़े विशाल हाथ हैं। अतीव भाग्यहीन है अधीर भाव जो करे,"
परमात्मा दयालु हैं। उनके हाथ विशाल हैं, और उनका यह विशाल हाथ सभी के ऊपर सदा रहता है। उनका हाथ इतना विशाल है की कोई भी गरीब, दीन, दुखी, उनके आशीर्वाद से अछूता नहीं रहता है। परन्तु जो लोग परमात्मा पर भरोषा नहीं रखते हैं, दुःख के समय में धीरज खो देते हैं , वे लोग ही भाग्यहीन होते हैं।
उपदेश - जो धन और शक्ति पर अभिमान नहीं करते हैं और ईश्वर पर विश्वास रखते हैं, वही मनुष्य हैं।
अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े,
समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े-बड़े।
परस्परावलंब से उठो तथा बढ़ो सभी,
अभी अमर्त्य-अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।
रहो न यां कि एक से न काम और का सरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े-बड़े।
परस्परावलंब से उठो तथा बढ़ो सभी,
अभी अमर्त्य-अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।
रहो न यां कि एक से न काम और का सरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
- परस्परावलंब - एक दूसरे का सहारा बनना
- अमर्त्य अंक - परमात्मा की गोद
- अपंक - कलंक रहित
कवि कहते हैं कि यह अंतरिक्ष अनंत है, इसकी कोई सीमा नहीं है और इस अंतरिक्ष में देवता भी अनंत हैं जो अपनी बाँहें फैलाए हुए सबका स्वागत कर रहे हैं। सभी को एक-दूसरे का सहारा बनना चाहिए और एक-दूसरे का उत्थान करना चाहिए।
"अभी अमर्त्य-अंक में अपंक हो चढ़ो सभी" अर्थात मनुष्य को अपंक होकर देवताओं की गोद जाना चाहिए। परमात्मा अपनी बाहें सभी के लिए फैलाए हुए हैं लेकिन मनुष्य उनको तभी पा सकता है जब वह गन्दगी से मुक्त हो जायेगा( पंक- कीचड़ /गन्दगी /कलंक )। जब मनुष्य का मन निर्मल (अपंक) होगा, उसमे किसी प्रकार की विकृति जैसे- लोभ, क्रोध, अहंकार, आदि नहीं होगा तब वह परमात्मा को पा सकता है या फिर यूँ कहें कि तब ही परमात्मा उसे अपनाएंगे।
"रहो न यां कि एक से न काम और का सरे," मनुष्य को एक-दूसरे की सहायता करनी चाहिए, ताकि सबका विकास हो। अपना कार्य तो पशु भी सिद्ध करते हैं, जो दूसरे के कार्य में भी सहयोग करे वही वास्तविक मनुष्य है।
'मनुष्य मात्रा बन्धु हैं' यही बड़ा विवेक है,
पुराणपुरुष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।
फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद हैं,
परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।
अनर्थ है कि बन्धु ही न बन्धु की व्यथा हरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
पुराणपुरुष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।
फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद हैं,
परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।
अनर्थ है कि बन्धु ही न बन्धु की व्यथा हरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
- विवेक - सही तथा गलत का निर्णय लेने की क्षमता को विवेक कहते हैं।
- पुराणपुरुष - पुराणों में जिन पुरुषों की व्याख्या है
- स्वयंभू - परमात्मा को स्वयंभू कहते हैं / स्वयं उत्पन्न होने वाला
- अंतरैक्य - सभी के अंदर जो आत्मा है, वह एक है।
- व्यथा - दुःख, समस्या
"'मनुष्य मात्रा बन्धु हैं' यही बड़ा विवेक है," परमात्मा ने सभी को अपनी अनुकृति का बनाया है। संसार के सभी प्राणियों में परमात्मा का ही अंश आत्मा के रूप में विद्यमान है। अतः संसार के सभी मनुष्य एक-दूसरे के भाई-बंधू हैं। अर्थात जो मनुष्य सभी को अपने परिवार का मानते हैं, वही विवेकी हैं, ज्ञानी हैं।
"पुराणपुरुष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है" पुराणों में जिस परमात्मा के बारे में बतलाया है - वह परमात्मा ही हम सब के पिता हैं।
"फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद हैं,परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।"
अब प्रश्न यह है कि - यदि हम सब के पिता एक (परमात्मा) हैं, तो वह अपने संतान में इतना भेद भाव क्यों करते हैं? किसी रोटी को तरसते हैं, तो कोई अपने कुत्ते को भी लज़ीज पकवान खिलता है। क्यों?
परमात्मा का जवाब : मनुष्यों में यह भेदभाव तो केवल बाहरी रूप से है। कोई फ़क़ीर, तो कोई अमीर इसलिए है क्योंकि उसने वैसे कर्म किये हैं। पिता की कृपादृष्टि सभी पुत्रो पर बराबर होती है, लेकिन कोई अपने कर्मों से ऊँचा उठ जाता है और कोई नीचा हो जाता है।
लेकिन आंतरिक रूप से इन सभी के अंदर मेरा ही अंश आत्मा के रूप में विद्यमान है। इस बात का साक्षी वेद है। 'सब जन्म मुझी से पाते हैं फिर लौट मुझी में आते हैं। '
"अनर्थ है कि बन्धु ही न बन्धु की व्यथा हरे," हम सब एक ही परमपिता की संतान होने कारन, आपस में भाई-बंधु हैं। इसलिए एक दूसरे के दुःख-सुख में साथ देना चाहिए। अपने सामर्थ्य से असमर्थ व्यक्ति का साथ देना चाहिए।
अतः जो हर जीव को अपना मानता है और उनके दुःख का भागीदार है, वही वास्तविक मनुष्य है।
चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए,
विपत्ति,विघ्न जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।
घटे न हेलमेल हाँ, बढ़े न भिन्नता कभी,
अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।
तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
विपत्ति,विघ्न जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।
घटे न हेलमेल हाँ, बढ़े न भिन्नता कभी,
अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।
तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
- अभीष्ट - इच्छित
- मार्ग - रास्ता
- सहर्ष -अपनी खुशी से
- विपत्ति,विघ्न - संकट ,बाधाएँ
- अतर्क - बिना किसी तर्क के
- सतर्क पंथ - सावधान यात्री
मनुष्यों को यह ध्यान रखना चाहिए कि आपसी समझ न बिगड़े और भेद भाव न बड़े। बिना किसी तर्क वितर्क के सभी को एक साथ ले कर आगे बढ़ना चाहिए तभी यह संभव होगा कि मनुष्य दूसरों की उन्नति और कल्याण के साथ अपनी समृद्धि भी कायम करे।
Watch complete explanation video of this poem:)
Bahut accha
ReplyDeleteGreat job
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