किताबो की खुशबू याद नहीं मुझे

   किताबो की खुशबू याद नहीं मुझे   

यह कविता मैंने आज से २ वर्ष पहले लिखी थी, मेरे मित्र के मित्र के लिए। चूँकि मैं उनका कंप्यूटर प्रोजेक्ट कर रहा था, इसलिए लाजमी है कि मैं उसे उन चीजों से भर दूँ जो मुझे पसंद हो। और ये रही किताबों पर मेरी रचना। 

internet, online study, pdfs और किताबों से लगभग दूरी ने किस प्रकार हमारे जीवन को प्रभावित किया है, प्रस्तुत है मेरी कलम से ;-


न वक़्त का ठिकाना था, न internet का जमाना था। 
हाथ में एक किताब थी, और पन्ने पलटते जाना। 
नज़र पड़ी तो ध्यान आया,
कि जिस घडी को मैंने 6 बजे छोड़ा था,
वो अभी भी 6 बजा रही है। 
बस शाम हो गया है , और नींद आ रही है।
अब वक़्त नहीं है ,पर internet भरपूर है। 
दिल से किताब कब पढ़ा था ,उस याद पर भी,
पड़ गयी धूल है। 
किताबो की खुशबू याद नहीं मुझे,
क्यूंकि किताबे तो रोजाना पढता हूँ जबरन। 
पर बात कब की उससे,
यह याद नहीं मुझे।
किताबो की खुशबू याद नहीं मुझे ...!


यह कविता पहले लिखी थी, ये पहले के खयालात थे, पर यक़ीन मानिये अब किताबों से  बातें करता हूँ। किसी किताब के आख़िरी पन्ने पलटता हूँ तो लगता है जैसे कोई दोस्त खो गया हो। लेकिन उस दोस्त के घर जब भी जाओ कुछ  नया जरूर मिलता है। 

उस प्रोजेक्ट के स्लाइड्स संलग्न कर रहा हूँ।    

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