Rashmirathi

🍃 रश्मिरथी - परिचय (it doesn't need any intro)

रश्मिरथी! एक महाकाव्य। हमारे दूसरे राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिंह 'दिनकर' जी की महान रचना। यह महाकाव्य महाभारत की घटनाओं पर आधारित है। पर सवाल यह है कि महाभारत ग्रन्थ के होते हुए, रश्मिरथी में ऐसी क्या खास बात है जो इसे महान रचनाओं में शामिल करती है। 

जवाब - हम जब भी महाभारत पढ़ते हैं, सुनते हैं, या फिर देखते हैं तब हम इसे भी कहीं न कहीं किसी अन्य फिल्म और कहानी की तरह ही दखते हैं। हम पांडवो के पक्षधर हो जाते हैं और किसी अन्य फिल्म की तरह हीरो की साइड लेकर पुरे फिल्म को देखते हैं, जोकि यहाँ अर्जुन और भीम होते हैं। 

या फिर हम यह भी कह सकते हैं कि हम इस ग्रन्थ को वैसा ही समझते हैं जैसा भगवन हमें बतलाते हैं। वैसे भगवान को समझने वाला कोई पंडित है ??

हमारे राष्ट्रकवि दिनकर जी इस  महाभारत को किसी और ही नज़रिये से देखते हैं। वे उन पहलुओं की विवेचना करते हैं जिनके बारे में हम सोचना नहीं चाहते या फिर कतराते हैं। 

      वह छठा पांडव जो आजीवन माता कुंती के ममतत्व तड़पा। 

 जिसने माता का दूध तक नहीं चखा फिर भी सबसे सुर-वीर-पराक्रमी निकला। 

वह महादानी जो सूर्यपुत्र होकर भी जीवनप्रयन्त सूतपुत्र पुकारा गया। 

जिसने धर्मपरायणता और कर्तव्यपरायणता की परिकाष्ठा समाज में स्थापित किया। 

महाकवि दिनकर ने अपनी रचना रश्मिरथी में महाभारत को वीर कर्ण की दृष्टि से दिखलाया है। इसमें कर्ण का माता कुंती, भगवन श्रीकृष्णा, गुरु परशुराम के साथ संवाद दिया गया है। यूँ कहिये कि कर्ण के बोल दिनकर के कलम से नीलके हुए हैं। कई घटनाओं को कवी ने बेमिशाल काव्य-शैली में लिखा है। कविता आपके अंतर्मन तक पहुँचती है, आपको उत्तेजित करती है, झंकझोरती है और आपको ऊर्जा से भर देती है। 

पूरे सात सर्ग की यह कविता है, जोकि 194 पन्नों की है। दिनकर इसकी प्रस्तावना में लिखते हैं कि रश्मिरथी ने उन्हें कर्ण के व्यक्तित्व का वर्णन करने का मौका भी दिया  और साथ ही वे समाज के कई विकारों, कुरीतियों की भी चर्चा कर सके। और इस रचना के पूर्ण होने पर वे इससे संतुष्ट भी हुए। 

उदाहरण के तौर पर चार पंक्तियाँ रश्मिरथी से :-

"मैं कहता हूँ अगर विधाता नर को मुट्ठी में भरकर,

छींट दे यदि ब्रह्मलोक से ही भूमण्डल पर। 

फिर भी मनुज यहाँ विविध जातियों में ही आएगा,

नीचे हैं क्यारियाँ बानी तो बीज़ कहाँ जायेगा। "

दिनकर एक महान विभूति थे। बालकवि 'वैरागी' के अनुसार इन महान लोगों को पूर्वाभास हो जाता है की कब इनकी आत्मा परमात्मा से मिलने वाली है। अपने जीवन के अंतिम दिनों में रामधारी जी दक्षिण के तिरुपति मंदिर गए और भगवान विष्णु को रश्मिरथी का पाठ करके सुनाया। इस काव्यपाठ के बाद दिनकर जी ने विष्णु की पत्नी लक्ष्मी के जनक समुद्र से कहा कि मैंने तुम्हे और तुम्हारे दामाद को इतनी सारी कविताएं सुनाई है, अब मुझे मेरा दक्षिणा दो। दक्षिणास्वरुप उन्होंने मृत्यु मांगा और हिंदी साहित्य का सूर्य दिनकर सदा के लिए अस्त हो गया।

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🍃श्री कृष्ण की चेतावनी -( तृतीय सर्ग से )

पांडव जब 12 वर्ष का वनवास और 1 वर्ष का अज्ञातवास पूरा कर के हस्तिनापुर वापस लौटे, तब उन्होंने शर्त के अनुसार कौरवों से आधा राज्य वापस माँगा। पर कौरव अपने शर्त से मुकर गए और राज्य देने से इंकार कर दिया।  फिर जैसा की हम जानते हैं, दोनों में युद्ध होने का निश्चय हुआ। युद्ध से पहले भगवान श्रीकृष्ण पांडवों की ओर से संधि प्रस्ताव लेकर हस्तिनापुर के महल में पहुँचते हैं। 

भगवान कहते हैं कि अगर न्यायसंगत हो, तो पांडवों को आधा राज्य सौंप दो। यदि यह भी नहीं होता तो फिर उन्हें सिर्फ 5 ग्राम दे दो, वे उसी में संतुष्ट हो जायेंगे। परन्तु मूढ़ कौरवों की मति मारी गयी थी, वे इस प्रस्ताव को स्वीकार करने के बजाय भगवान् को ही बांधने चल दिए-- क्योंकि जिनके पास हरी है, उसे कौन हरा सकता है। 

अब भगवन क्रोधित हो उठे, और उन्होंने अपना विराट स्वरुप पुरे सभा के सामने प्रकट कर दिया और यह दिखने लगे की जिसे तुम बांधना चाह रहे हो वह इतना बड़ा है की तुम्हारी आँखों में समा भी न सकेगा। आइये देखते हैं, महाकवि दिनकर की कलम से भगवन का विराट रूप :- 

वर्षों तक वन में घूम-घूम,
बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,
पांडव आये कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।

मैत्री की राह बताने को,
सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,
भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये,
पांडव का संदेशा लाये।

‘दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रक्खो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे!

दुर्योधन वह भी दे ना सका,
आशीष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,
जो था असाध्य, साधने चला।
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।

हरि ने भीषण हुंकार किया,
अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,
भगवान् कुपित होकर बोले-
‘जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।

यह देख, गगन मुझमें लय है,
यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।

‘उदयाचल मेरा दीप्त भाल,
भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,
मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
सब हैं मेरे मुख के अन्दर।

‘दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,
मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,
नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,
शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।

‘शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,
शत कोटि जिष्णु, जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,
शत कोटि दण्डधर लोकपाल।
जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।

‘भूलोक, अतल, पाताल देख,
गत और अनागत काल देख,
यह देख जगत का आदि-सृजन,
यह देख, महाभारत का रण,
मृतकों से पटी हुई भू है,
पहचान, इसमें कहाँ तू है।

‘अम्बर में कुन्तल-जाल देख,
पद के नीचे पाताल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख,
मेरा स्वरूप विकराल देख।
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं।

‘जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,
साँसों में पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,
हँसने लगती है सृष्टि उधर!
मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,
छा जाता चारों ओर मरण।

‘बाँधने मुझे तो आया है,
जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन,
पहले तो बाँध अनन्त गगन।
सूने को साध न सकता है,
वह मुझे बाँध कब सकता है?

‘हित-वचन नहीं तूने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा।

‘टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,
बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा,
विकराल काल मुँह खोलेगा।
दुर्योधन! रण ऐसा होगा।
फिर कभी नहीं जैसा होगा।

‘भाई पर भाई टूटेंगे,
विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
आखिर तू भूशायी होगा,
हिंसा का पर, दायी होगा।’

थी सभा सन्न, सब लोग डरे,
चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर ना अघाते थे,
धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित,
निर्भय, दोनों पुकारते थे ‘जय-जय’!



🍃परशुराम-कर्ण संवाद -(द्वितीय सर्ग )

रश्मिरथी का यह अंश (द्वितीय सर्ग ) मुझे बेहद पसंद है क्योंकि इसमें परशुराम और कर्ण का संवाद दिया हुआ है, एक गुरु और शिष्य का संवाद दिया हुआ है। दिनकर की कलम जहाँ एक गुरु का शिष्य के लिए पुत्रवत प्रेम दिखती है, वहीं एक गुरु के प्रचंडतम क्रोध का सामना भी शिष्य से करवाती है। वीर-रस और प्रेम-रस का अद्भुत प्रयोग इस कविता में मिलता है। प्रेम-क्रोध-पश्चाताप के भावनाओं को पढ़ कर अंतरमन भी सिसक उठता है। 

समूचे धरती को क्षत्रियविहीन कर चुके महापराक्रमी और विप्र(ब्राह्मण) परशुराम ने यह प्रतिज्ञा ली थी कि वे ब्राह्मण जाति के अलावा किसी और को शस्त्र-विद्या नहीं सिखलायेंगे। कर्ण ने भी खुद को यह वचन दिया था कि वह अर्जुन को परास्त कर के रहेगा। इस प्रण को पूरा करने के लिए उसे एक गुरु की तलाश थी; यदि वह गुरु द्रोण के पास जाते तो उसका हश्र भी एकलव्य की ही तरह होता। अतः विद्याध्ययन की लालसा उन्हें महेंद्रगिरी ले आयी, जहाँ गुरु परशुराम संसार अलग निवास करते थे। 

परशुराम जितने महान तपस्वी थे, उतने ही वीर योद्धा भी। कठोर भी और कोमल भी। 







 

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