कबीर की साखी अर्थ सहित – Kabir Ki Sakhi Class 10 Summary in Hindi
- कबीर एक निर्गुणवादी कवी थे - यानी ये परमात्मा के निराकार रूप में विश्वास करते थे। ये राम (निराकार ब्रह्म ) को अपने ह्रदय में महसूस करते थे और अपने मन में उनका दर्शन , नाकि चित्र रुपी भगवन की पूजा करते थे।
- निर्गुणवादी कवियों के अनुसार ईश्वर बोधगम्य होते हैं , अक्षरगम्य नहीं। ईश्वर के अपने बुद्धि , विवेक और ह्रदय के भाव से जाना जा सकता है नाकि पुस्तकीय ज्ञान से।
- कबीर के अनुसार - यदि राम को प्राप्त करना है तो मन से तृष्णाओं का नाश करके मन को निर्मल बनाना होगा। धुप ,माला ,चन्दन ,आदि वाह्य आडम्बर से ईश्वर को नहीं प्राप्त कर हैं।
- तृष्णा - मन में पाशविक प्रवृतियों का वास हो जाना। जैसे - लोभ ,मोह , क्रोध ,अहंकार ,ईर्ष्या ,आदि।
ऐसी बाँणी बोलिए मन का आपा खोई।
अपना तन सीतल करै औरन कैं सुख होई।।
- व्याख्या -कबीर साहब कहते हैं कि मनुष्य को ऐसी वाणी ( वचन ) बोलनी चाहिए जिसमें अहंकार नहीं हो। "मन का आपा खोए " का आशय है - अहंकार रहित होकर बोलना। ऐसे वचन बोलते हैं तो मन में तृष्णा (अहंकार,ईर्ष्या,आदि ) नही होती हैं , इससे वक्ता (बोलने वाला ) को आत्मिक संतुष्टि(spiritual satisfaction ) मिलती है और श्रोता (सुनने वाला ) को असीम सुख का अनुभव होता है।
- मीठी बोली - अहंकार त्याग कर बोलने से वाणी में मिठास आती है। मीठी वाणी से वक्ता को संतुष्टि और शीतलता मिलती है और श्रोता को सुख की अनुभूति होती है।
- कड़वी बोली - अहंकार से भरकर कर बोलने से वाणी कड़वी हो जाती है। यह कटुवचन ही संसार के अधिकांश झगड़ों का मूल कारन है।
कस्तूरी कुण्डली बसै मृग ढ़ूँढ़ै बन माहि।
ऐसे घटी घटी राम हैं दुनिया देखै नाँहि॥
- कस्तूरी मृग (हिरन ) पहाड़ों पर रहती है। उसके नाभि (कुण्डली) में कस्तूरी छिपी होती है , जिसका सुगंध अद्भुत होता है। लेकिन मृग इस बात से अनजान होती है और इसी अज्ञानता के कारन वह उस अद्भुत सुगंध का स्रोत (source ) ढूंढते रहती है जो स्वयं उसके नाभि से उत्पन्न हो रहा है। मृग उस सुगंध की दीवानी होती है लेकिन अज्ञानता में उसको पूरे वन में आजीवन ढूँढ़ते रहती है और मर जाती है।
- कस्तूरी - प्रतीक है - निराकार ब्रह्म (राम) की
- कुंडली - प्रतीक है - अंतर्मन का
- वन - प्रतीक है - संसार की
- मृग - प्रतीक है - लोगों की
- प्रतीकात्मक व्याख्या - मृग की भांति लोग भी अज्ञानता के कारन परमात्मा को इधर-उधर पूरे संसार में ढूंढते रहते है जबकि ईश्वर मनुष्य के अंदर ही वास करते है। लोग भी इस बात से अनभिज्ञ होकर परमात्मा को मंदिरो और मूर्तियों में ढूंढते है।
- मृग और मनुष्य दोनों अज्ञानी हैं।
- कस्तूरी और राम दोनों आंतरिक लोक के वासी हैं।
जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि हैं मैं नाँहि।
सब अँधियारा मिटी गया दीपक देख्या माँहि॥
- मैं - अहंकार
- अँधियारा - अज्ञानता का प्रतीक है
- दीपक - ज्ञान का प्रतीक है
- माँहि - अंदर
- जब मनुष्य में अहंकार आ जाता है , तब वह अपने अंदर विद्यमान परमात्मा को नहीं पहचान पता है।
- परमात्मा ने सभी को अपनी अनुकृति का बनाया है , यानी परमात्मा के जैसा ही लेकिन तुच्छ आत्मा सबके अंदर है।
- मनुष्य जब अहंकार से भर जाता है , मन में तृष्णा ( लोभ ,मोह , अहंकार ,ईर्ष्या , जैसी पाशविक प्रवृतियाँ ) का वास होता है , तब वह अपने अंदर परमात्मा को नहीं देख पता है , या फिर कहा जा सकता है कि जहाँ अहंकार है वहाँ राम (निराकार ब्रह्मा - मूर्ति रूपी नहीं ) नहीं हैं।
इस चित्र में महावत और हाथी सवार व्यक्ति में अभिमान के कारन राम नहीं हैं। - क्यों - अहंकार में मनुष्य स्वयं को सर्वोच्च समझता है , अपनी सत्ता (power) को ईश्वर की सत्ता से अलग करने की कोशिस करता है। अहंकारी व्यक्ति भूल जाता है कि उसे परमात्मा ने धरती पर भेजा लौट कर वापस परमात्मा के ही पास जाना है। वहां जवाब देना होगा कि इतने वर्ष धरती पर क्या किया , क्योंकि सबसे बड़ी सत्ता (power) तो उसी की है।
- जब दीपक देख्या माँहि - जब मनुष्य को ज्ञान रूपी दीपक प्राप्त हो जाता है तब उसके अंदर का अज्ञान रूपी अंधकार मिट जाता है।
- ज्ञान मिलने का तात्पर्य है ईश्वर को जान लेना , परमात्मा से ऊपर किसी की सत्ता (power) नहीं है , इस बात को जान लेना ही ज्ञान मिलना है। खुद को श्रेष्ठ मान कर अहंकार करना , स्वयं को धोखा देने के सामान है।
सुखिया सब संसार है खाए अरु सोवै।
दुखिया दास कबीर है जागे अरु रोवै।।
- कबीर कहते हैं कि संसार में सभी लोग सुखी हैं , कहते है और सोते रहते हैं। एक कबीर दास ही हैं जो दुखी रहते हैं, हमेशा जागते रहते हैं और रोते रहते हैं। :(
- वास्तविक व्याख्या - संसार में दो तरह के लोग हैं:-
1. सुखी लोग और
2. दुखी लोग जिसमे कबीर भी शामिल हैं।
संसार में सुखी वे लोग हैं जोअज्ञानता के कारन परमात्मा की भक्ति से विमुख हो गए हैं और संसार और सांसारिक सुखों (भौतिक सुख - धन ,बांग्ला ,गाड़ी ) को ही सत्य मान बैठे हैं और आनंद की अनुभूति करते हैं।
दूसरी तरफ कबीर दस जैसे लोग हैं जो दुःखी हैं क्योंकि उनके लिए सत्य केवल परमात्मा हैं। यही कारन है कि ईश्वर के वियोग में वे रोते रहते हैं और उनके दर्शन पाने के लिए जागते रहते हैं।
- वास्तविकता तो यह है कि जो स्वयं को सुखी मानते है वे अज्ञानी हैं ,क्योंकि वे भौतिक/सांसारिक सुखों को सत्य मान रहे हैं जोकि नाशवान है। वे लोग परमात्मा को पाने से वंचित रह जाते हैं।
- Aakhir paramatma ko kyu paana chahte hain...?
बिरह भुवंगम तन बसै मन्त्र न लागै कोई।
राम बियोगी ना जिवै जिवै तो बौरा होई।।
- बिरह - वियोग / जुदाई
- भुवंगम - भुजंग - साँप
- तन - शरीर
- बौरा - पागल
- बिरह भुवंगम - विरह रूपी सर्प / वियोग रूपी साँप
- कबीर कहते हैं कि परमात्मा का वियोग वैसा ही है जैसा कि कोई सांप किसी को डँस लेता है तो उसका कोई उपचार नहीं होता है , कोई मंत्र नहीं काम करता है। ठीक उसी प्रकार जो परमात्मा के वियोग से दुखी होते हैं ,उनका भी कोई उपचार नहीं होता है , कोई मंत्र काम नहीं करता है। ईश्वर के वियोग में लोग जी भी नहीं पाते हैं , और यदि जीवित रहते हैं तो दुनिया कि नज़रों में वे पागल हो जाते हैं। उदाहरण - कृष्णा भक्त मीरा अपने आराध्य के वियोग में पागल कहलाई। श्रीराम भक्त माता शबरी को भी सब पागल कहते थे ,क्योंकि वे अपने परमात्मा के वियोग में हमेशा उनकी भक्ति में लीन रहते थे।
निंदक नेड़ा राखिये, आँगणि कुटी बँधाइ।
बिन साबण पाँणीं बिना, निरमल करै सुभाइ॥
- निंदक - आलोचक
- नेड़ा - near - पास
- सुभाई - स्वाभाव - चरित्र
- वस्तुतः समाज में आलोचक को नीची निगाह से देखा जाता है , उसे बुरा समझा जाता है। कबीर साहब कहते हैं कि ये जो हमारी निंदा करते हैं ,वे बड़े काम के व्यक्ति होते हैं। निंदक हमारे स्वाभाव के दुर्गुणों को उजागर करते हैं और हमारे चरित्र के दोषों से हमें अवगत करते हैं। इस प्रकार हम अपने चारित्रिक दोषों को सुधर कर के समाज में उच्च श्रेणी को प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए कबीर साहब कहते हैं कि आलोचक से घृणा नहीं करनी चाहिए बल्कि उसे अपने करीब रखना चाहिए और यदि संभव हो तो उसे अपने आँगन में एक कुटिया बना कर दे देनी चाहिए।
- आलोचक बिना साबुन-पानी के ही हमें स्वच्छ कर देते हैं , यह सबसे तरीका है।
- आलोचक हमें आत्मसुधार कर के मानव से महामानव फिर देवत्व श्रेणी प्राप्त करने का अवसर देते हैं।
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।
एकै अषिर पीव का, पढ़ै सु पंडित होइ॥
- पोथी - धार्मिक पुस्तकें , जिसमें जीव-जगत और ईश्वर से सम्बंधित ज्ञान होता है। इसमें परमात्मा को पाने का ज्ञान भी होता है।
- पंडित - जो परमात्मा को जानते हैं या फिर परमात्मा के ज्ञान को जानने के लिए रत रहते हैं।
- पीव - प्रियतम। कबीर के प्रियतम निराकार ब्रह्म (राम ) हैं।
- कबीर कहते हैं कि लोग परमात्मा को पाने के लिए पोथी (धर्म ग्रन्थ ) पढ़ते रहते हैं लेकिन फिर भी कोई पंडित नहीं हो सका अर्थात परमात्मा के रहस्य को नहीं जान पाया , परमात्मा को नहीं पा सका।
- क्यों - क्योंकि ईश्वर बोधगम्य हैं , अक्षरगम्य नहीं। ईश्वर को अपने ह्रदय के भाव से जाना जा सकता , पुस्तकीय ज्ञान से नहीं। पढ़ना मस्तिष्क का भाव है , जबकि ह्रदय का भाव है -प्रेम करना।
- कबीर ईश्वर को अपने प्रियतम बनाकर , उन्हें प्रेम के भाव से जान लेते हैं अर्थात पंडित हो हैं। इसलिए जो प्रेम भाव से ईश्वर का एक अक्षर भी जान लेता है , वह पंडित हो जाता है।
हम घर जाल्या आपणाँ, लिया मुराड़ा हाथि।
अब घर जालौं तास का, जे चलै हमारे साथि॥
- मुराड़ा - मशाल
- कबीर साहब कहते हैं कि मैंने अपने हाथ में मशाल लेकर अपने घर को जला दिया है। अब जो मेरे साथ चलेगा मैं उसका भी घर जला दूंगा। :)
- घर - प्रतीक है - ह्रदय / मन का
- मुराड़ा - प्रतीक है - ज्ञान और वैराग्य का
- प्रतीकात्मक व्याख्या - कबीर साहब ने ज्ञान और वैराग्य(संसार और सांसारिकता से वियोग ) का सहारा लेकर अपने अंतर्मन को जला दिया ,अर्थात अपने मन की गन्दगी को ज्ञान से साफ़ कर दिया। वैराग्य का सहारा लेकर तृष्णाओं से मुक्त हो गए।
- जो लोग कबीर के मार्ग पर उनके साथ चलेंगे , यानी उनके आदर्श को अपनाएंगे , उनकी ही तरह ज्ञान प्राप्त करके ईश्वर को पाने के लिए रत रहेंगे , उनका भी उद्धार होगा, वे लोग भी अपने मन को निर्मल बना सकेंगे।
watch explanation video of this chapter
Bihari ji ke bare me v post kijiye
ReplyDeleteJaroor, Dheeraj rakhiye
DeleteBihari ji jald hi apni kripa drishti banayenge... Kripya vichalit na ho..
DeleteYoutube pe video uplabdh hai.. kripya waha se arth ko grahan kare.. blog par jald hi saprasang vyakhya pratipadit ki jayegi