meera ke pad

मीराबाई के पद 

प्रथम पद में मीरा अपने आराध्य के रक्षक रूप को याद करती हैं और उनसे अपनी रक्षा रक्षा की गुहार लगाती हैं। 
meera

रि आप हरो जन री भीर।
द्रोपदी री लाज राखी , आप बढ़ायो चीर।
भगत कारण रूप नरहरि , धरयो आप सरीर।
बूढ़तो गजराज राख्यो , काटी कुञ्जर पीर।
दासी मीराँ लाल गिरधर , हरो म्हारी भीर।।


  • जन - परिस्तिथियों से संघर्ष कर रहे लोगों को जन कहते हैं। 
मीरा अपने आराध्य इष्टदेव श्रीकृष्ण के रक्षक रूप का वर्णन करती हैं। उनके आराध्य कृष्णा भक्त वत्सल हैं अर्थात अपने भक्तों की पुकार सुनते हैं और अपनी परिस्तिथि से संघर्ष कर रहे लोगों की रक्षा करते हैं। 

मीरा तीन उदाहरण देकर अपनी बात सिद्ध करती हैं। 
  1. हे प्रभु ! द्रौपदी आपकी आपकी भक्त थी। जब वस्त्रहरण के समय उसने आपसे रक्षा की गुहार लगाई तब आपने उसके वस्त्र बढ़ा दिए और उसके अस्मत (इज्जत ) की।
  2. अपने भक्त  प्रह्लाद को हिरण्यकश्यप के आतंक से बचने के लिए आपने नृसिंह अवतार लिया। 
  3. जब गजराज के पैर को मगरमछ ने धर लिया तब उसने आपका स्मरण किया और आपने गजराज को मगर के चंगुल से आज़ाद किया। 
अतः हे मेरे आराध्य , मैं भी आपकी दासी हूँ , आप मेरे  दुखों को दूर कीजिए। 


अगले पद में मीरा श्रीकृष्ण की चाकरी करना चाहती हैं और अपने कुछ उद्देश्यों की पूर्ति करना चाहती हैं। यहाँ इनकी दास्य भाव की भक्ति दिखती है। 
स्याम म्हाने चाकर राखो जी,
गिरधारी लाला म्हाँने चाकर राखोजी।
चाकर रहस्यूँ बाग लगास्यूँ नित उठ दरसण पास्यूँ।
बिन्दरावन री कुंज गली में , गोविन्द लीला गास्यूँ।
चाकरी में दरसन पास्यूँ, सुमरन पास्यूँ खरची।
भाव भगती जागीरी पास्यूँ , तीनूं बाताँ सरसी।



अब मीरा बाई श्रीकृष्णा की चाकरी करना चाहती हैं। वे अपने आराध्य की चाकरी करके अपने तीन उद्देश्यों की पूर्ति करना चाहती हैं :-
  1. दर्शन पाना - वे कृष्णा की चाकरी करके उनके लिए बाग़ लगाना चाहती हैं ताकि प्रतिदिन उनके दर्शन प्राप्त कर सकें । 
  2. नाम स्मरण - वे चाकरी करते हुए वृन्दावन की गलियों में कृष्णा की लीलाओं का गुण-गान करना चाहती हैं, इस प्रकार वे कृष्ण-भक्ति से पुण्य संचय करना चाहती हैं।  
  3. भाव भक्ति जागीर प्राप्त करना - वे कृष्ण की भक्ति रूपी जागीर प्राप्त करके अमरत्व प्राप्त करना चाहती हैं। 
  • भक्ति को जागीर इसलिए कहा जाता है क्योंकि जब मनुष्य भक्ति करना है तब वह अपना सब कुछ भगवन के चरणों में समर्पित कर देता है। अपने भौतिक सुखों का त्याग और तृष्णाओं का त्याग करने से ईश्वर प्राप्त होते हैं। इस प्रकार भक्ति पाकर मीरा अमर हो गयीं और आज भी हम उनकी भक्ति भावना को जानते हैं। 
  • अब मीरा कृष्ण के रूप सौंदर्य का बखान करती हैं। 
मोर मुगट पीताम्बर सौहे , गल वैजन्ती माला।
बिन्दरावन में धेनु चरावे , मोहन मुरली वाला।


मीरा कहती हैं कि पीले वस्त्र पहने हुए ,सर पर मयूर पंखों से निर्मित मुकुट पहने हुए और गले में वैजन्ती की माला धारण किये हुए श्रीकृष्ण सोभते हैं। इस रूप में जब वे वृन्दावन में गैया चराते हैं  बांसुरी  बजाते हैं तब वे मन को मोह लेते हैं। 

  • अब मीरा अपने ह्रदय की व्याकुलता का वर्णन करती हैं। इस पद की चार पंक्तियों को निचे से पढ़ना सुरु करें तो अर्थ स्पष्ट होता है।  

ऊँचा ऊँचा महल बनावँ बिच बिच राखूँ बारी।
साँवरिया रा दरसण पास्यूँ ,पहर कुसुम्बी साड़ी।
आधी रात प्रभु दरसण ,दीज्यो जमनाजी रे तीरा।
मीराँ रा प्रभु गिरधर नागर , हिवड़ो घणो अधीरा।


  • कुसुम्बी - यह सुहागन का प्रतीक है। 
  • नागर - जो नगर में रहता है (नगर का विशेषण) ; प्राचीन समय में सिर्फ सभ्य और विद्वान लोगों को ही नगर में रहने दिया जाता था। 

मीरा के प्रभु गिरधर अर्थात गिरी को धारण करने वाले श्रीकृष्ण सभ्य हैं ,विद्वान हैं। मीरा जी का ह्रदय अपने आराध्य के दर्शन पाने के लिए व्याकुल हो रहा है। वे अपना धीरज खो रही हैं और आधी रात को ही जमुना नदी के किनारे अपने प्रभु के दर्शन चाहती हैं। वे कृष्ण को अपना प्रियतम मानती हैं और इसीलिए वे कुसुम्बी साड़ी पहन कर अपने प्रभु से मिलना चाहती हैं। वे कृष्ण के लिए ऊँचे-ऊँचे महल भी बनाएंगी और बीच-बीच में बगिया भी लगाना चाहती हैं , ताकि अपने प्रियतम के साथ रह सकें। 

 

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