आत्मत्राण

कविता : आत्मत्राण 
कवि : रवींद्रनाथ ठाकुर
अनुवाद :हज़ारी प्रसाद द्विवेदी 

गुरु रवींद्रनाथ ठाकुर ने यह कविता बंगाली भाषा में लिखा था और फिर उनके प्रिये शिष्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जी ने इसका हिंदी में अनुवाद किया। यह एक प्रार्थना गीत है। 
  • सुख और दुःख की आँख-मिचौली का नाम जीवन है। जीवन को पूर्णता तब मिलती है जब मनुष्य को सुख और दुःख दोनों की अनुभूति हो। 
  • यह संसार मर्त्यलोक है और यह दुःख का आगार है। अतः जो भी यहाँ जन्म लेगा उसे दुःख भोगना ही पड़ेगा। स्वयं ईश्वर भी जब धरती पर नर रूप में अवतार लेते हैं तो दुःख भोगते हैं। 
  • हमारी प्रार्थना ईश्वर से दास्य भाव की होती है , अर्थात हम ईश्वर से दुखों से मुक्ति पाने और सुख-समृद्धि पाने के लिए प्रार्थना करते हैं।(शास्त्रों में भी लिखा है की जब मनुष्य स्वार्थी होता है और स्त्री , पुत्र और धन की कामना और दुख संकट से मुक्ति के  लिए किया गया दान , यज्ञ ,उपासना , आदि सकाम भी निष्फल होते  हैं )
  • ईश्वर सब कुछ कर देने की असीम क्षमता है , फिर भी वे हमें दुखो से मुक्ति नहीं  सकते हैं। सुख और दुःख ईश्वरीय नियम हैं और परमात्मा अपने नियमों से बंधे होने के कारन दुखों से मुक्ति नहीं दे सकते। 
  • इस प्रकार हमारी प्रार्थना का तरीका ही अनुचित है। जीवन को पूर्णता देने के लिए दुख भोगना होगा। 
कवि रविंद्रनाथ ठाकुर से पहले सभी कवियों ने अपनी कविताओं से लोगों को समझाया की मनुष्य कैसे मानवीय मूल्यों को अपना कर अपना जीवन सुधार सकता है और मानव से महामानव और फिर देवत्व की श्रेणी प्राप्त कर सकता है। 
अब कव उपदेश देने क बजाय स्वयं परमात्मा से यह प्रार्थना कर रहे है। तो आइए देखते  हैं कि कवी सुख के दिनों में और दुःख के दिनों में क्या प्रार्थना करते  हैं। 

दुःख के दिनों में कवि की प्रार्थना :-

विपदाओं  से मुझे बचाओ , यह मेरी प्रार्थना नहीं 
केवल इतना हो  (करुणामय )
कभी न विपदा  में पाऊँ भय। 
(1) कवि परमात्मा से दुःख से मुक्ति बल्कि उसे सहन करने की शक्ति मांगता है। 

दुःख -तप से व्यथित   चित को  न दो सांत्वना नहीं सही 
पर इतना होवे (करुणामय )
दुःख को मैं  कर सकूँ सदा जय। 
(2) कवि परमात्मा से आत्मबल मांगता है ताकि वह अपने विपत्तियों को अपने नियंतरण  में कर सके। 

कोई कहीं सहायक न मिले 
तो अपना बल पौरुष न हिले ;
हानि उठानी पड़े जगत में लाभ अगर वंचना रही 
तो भी मन में न मानु क्षय। 
(3) कवि परमात्मा से मनोबल बढ़ने और आशावादी बनाने की प्रार्थना करते हैं। 

मेरा त्राण करो अनुदिन तुम यह मेरी प्रार्थना नहीं 
बस इतना होवे (करुणामय )
 तरने की हो शक्ति अनामय। 
(4) कवि ईश्वर से प्रार्थना करता है कि  दुःख से पार के लिए मुझे निरोग बनाये रखो। 

मेरा  भार अगर लघु करके न दो  सांत्वना नहीं सही।  
 केवल इतना रखना अनुनय -
वहन कर सकूँ इसको निर्भय। 
(5) कवि परमात्मा से निडरता का वरदान मांगता है ताकि अपने उत्तरदायित्व को ईमानदारी से निभा सके। 

दुःख के दिनों में कवि की प्रार्थना :-
नत सिर होकर  सुख के दिन में 
तव मुख पहचानूँ छिन -छिन  में। 
(1) कवि सुख के दिन में यह प्रार्थना करता है की उसे विनम्रता का वरदान मिले। 

दुःख रात्रि  करे वंचना मेरी जिस दिन निखिल मही 
 उस दिन ऐसा हो करुणामय ,
तुम पर करूँ नहीं कुछ संशय।  
(2) कवि चाहता है कि उसका आस्था ईश्वर पर हमेशा बानी रहे और ईश्वर  के अस्तित्व पर कभी उसे संदेह न हो। वह परमात्मा की भक्ति में लीन रहना चाहता है। 

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